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शान्ति
शान्ति असीम होनी चाहिये, अचंचलता गहरी और निश्चल, स्थिरता अटल और भगवान् पर विश्वास हमेशा बढ़ने वाला ।
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स्थिर प्रबल और निरन्तर शान्ति द्वारा ही सच्ची विजयें पायी जा सकती हैं ।
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सुस्थिरता और शान्ति में ही तुम यह जान सकते हो कि करने के लिए सबसे अच्छी चीज क्या है ।
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सचमुच शान्ति की बड़ी सख्त जरूरत हे-शान्ति के बिना सरल-से-सरल बात भी बड़ी गड़बड़ पैदा करती है ।
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अगर तुम्हारे अपने हृदय में शान्ति न हो तो तुम उसे और कहीं भी न पा सकोगे ।
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अगर तुम अन्दर से शान्ति की मांग करो तो वह आयेगी । १६ अप्रैल, १९३३
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जब हृदय और मन शान्त हों तो बाकी सब स्वभावत: आ जाता है । २६ जुलाई, १९३६ *
१५२ पवित्र मन की शान्ति से बढ़कर कोई और शान्ति नहीं है ।
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मन को दिलासा : नीरव शान्ति ।
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विशाल शान्ति और स्थिरता मौजूद हैं, वे तैयार हैं कि तुम उनके प्रति खुलो और उन्हें ग्रहण करो । ११ सितम्बर, १९३७
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भगवान् की विशाल शान्ति को अपने अन्दर पूरी तरह से पैठने और अपनी सभी गतिविधियों का आरम्भ करने दो ।
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तुम्हारे अन्दर 'शान्ति' अधिकाधिक अनवरत और पूर्ण रूप से अभिव्यक्त हो ।
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तुम्हारे हृदय और मन में भगवान् की शान्ति हमेशा राज करे । ८ मई, १९५४ *
१५३ तुम शान्ति और आन्तरिक नीरवता में सतत दिव्य उपस्थिति के बारे में अधिकाधिक सचेतन होगे ।
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'शाश्वत' शान्ति और नीरवता में अभिव्यक्त होते हैं । किसी भी चीज को अपने को क्षुब्ध न करने दो और 'शाश्वत' प्रकट होंगे । १२ मई, १९५४ *
सच्ची शक्ति अविचल शान्ति में ही मिल सकती है । १३ जून, १९५४
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शान्ति में ही ज्ञान और शक्ति सचमुच प्रभावशाली होते हैं ।
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हमारे हृदयों में सदा भगवान् की 'शान्ति' का निवास होना चाहिये । ११ सितम्बर, १९५४
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पूर्णतम शान्ति, प्रसादभाव और समता में ही सब कुछ भगवान् होता है, वैसे ही जैसे भगवान् सब कुछ हैं । २६ सितम्बर, १९६४
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मन की शान्ति को अनुकूल परिस्थितियों द्वारा नहीं बल्कि आन्तरिक रूपान्तर द्वारा प्राप्त करना चाहिये । १८ मार्च, १९६०
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साधक भगवान् से ही शान्ति पाता है, ऐसी शान्ति जो बाहरी परिस्थितियों
१५४ से एकदम स्वतन्त्र होती है । भगवान् की ओर अधिक मुड़ी वास्तविक आन्तरिक शान्ति के लिए अभीप्सा करो और तुम्हें बिना विघ्न-बाधा के अपना काम चलाते रहने के लिए काफी शान्ति मिल जायेगी । आशीर्वाद ।
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शान्त रहो, भगवान् के कार्य-संचालन में विश्वास रखो । १४ नवम्बर, १९६१
नीरवता
नीरवता : प्रगति के लिए आदर्श अवस्था ।
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नीरवता में ही सच्ची प्रगति की जा सकती है ।
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केवल नीरवता में ही सच्ची प्रगति की जा सकती है; केवल नीरवता में ही तुम किसी गलत चेष्टा का सुधार कर सकते हो, केवल नीरवता में ही तुम किसी और की सहायता कर सकते हो ।
अगर तुमने किसी सत्य को पा लिया है या अपने अन्दर भूल को सुधार लिया है या कोई प्रगति की है तो उसके बारे में अपने गुरु के सिवा किसी और को बतलाना या लिखना उस प्रगति या सत्य को तुरन्त खो देना है ।
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नीरव सहायता ज्यादा प्रभावशाली और निश्चित मालूम होती है, अधिक स्थायी और ब्योरेवार होती है । *
१५५ सर्वाधिक आदर-सम्मान नीरवता में है ।
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हृदय की नीरवता में तुम आदेश पाओगे ।
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हमारे हृदय की नीरवता में हमेशा शान्ति और आनन्द का निवास होता है । २७ मई, १९५४
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शान्त नीरवता में बल फिर से स्थापित हो जाता है ।. १८ जून, १९५४
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आओ, हम नीरव रहकर आराधना करें और गहरी एकाग्रता में भगवान् की वाणी सुनें । १५ अक्तूबर, १९५४
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चिन्तन की पूर्ण नीरवता में सब कुछ अनन्तता में फैलता जाता है और उस नीरवता की पूण शान्ति में भगवान् 'अपनी' ज्योति की देदीप्यमान भव्यता के साथ प्रकट होते हैं । २७ अक्तूबर १९५४
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हमें एकाग्रता और नीरवता में समुचित कार्य के लिए शक्ति जुटानी चाहिये । ८ नवम्बर, १९५४ *
कुछ नीरवताएं अन्तःप्रकाशी होती हैं और शब्दों की अपेक्षा अधिक व्यक्त कर सकती हैं ।
ध्यान
हम कुछ क्षणों के लिए अपनी अन्तरात्मा के संग का रस लेते हुए नीरवता में मिल बैठे और हमने अपने आगे 'शाश्वतता' के दरवाजों को पूरी तरह खुलते देखा । ५ जनवरी, १९५५ *
नीरवता में ही अन्तरात्मा अपने- आपको सबसे अच्छी तरह अभिव्यक्त कर सकती है । ७ जून, १९५८ *
भगवान् के साथ पूर्ण तादात्म्य की नीरवता में सच्ची समझ प्राप्त होती है । अक्तूबर, १९६९
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कभी-कभी हम शब्दों द्वारा समझ सकते हैं परन्तु जानते नीरवता में ही हैं ।
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नीरवता : सत्ता की वह अवस्था जब वह भगवान् की बात सुनती है । १५७ |